Friday, September 3, 2010

Language of all the things

उन आंखो की भाषा
उनमे छिपे ना जाने कितने ही सपने
देखो तो ये खाली खाली सा
सूना सा लगता है
अंदर झाँको तो ये
भरा भरा सा लगता है

शून्य मे अटके विचार
विलुप्त आसमान मे देखता
वो निर्विकार चेहरा
देखो तो पाओगे
  उनमे भी तुम कितने ही ख्वाब
जेहन मे गूँजता बस एक ही सवाल

हाँ ,
  तो क्या ये आंखे भी बोलती है ।
हाँ हाँ सूखा सूखा और नमी का
कुछ अजीब ही मिश्रण है

वो पथराई हुई आंखे, ऐसा ही कुछ
शायद देखा था

ये कितना सूखा है  
 हसने लगी थी वो
जब मैंने उससे ये पूछा था

चेहरे पर तो हंसी
लेकिन दिल मे ना जाने उसके
किस ज्वलन का ज्वार था

उस बढ़ते हाथ को कौन भूलेगा
कौन उसके हृदय को इतने करीब से छु लेगा ।

लेकिन आज वो हंसी भी गायब है
और एक अजीब सा ही कौतूहल है
समय ने बदलाव सा ले लिया है ।

अभी तो कुछ पल भी ना बीता था
जिंदादिली से वो जीवन को जीता भी ना था ।
क्यूँ बदल गया है  सब कुछ

आज मेरी भाषा लोग पढ़ते हैं
लेकिन क्या वो इसे समझते भी हैं  
 संकीर्ण और Limited Pattern मे
सोच ही बदल दिया है।

बातों की भाषा , भावों की भाषा
 पुनः फिर
 उन आंखो की भाषा

कभी कभी ये भाषा भी
अजीब ही होती है ।

मिलने का क्रम भी
 बिछड्ने से ही शुरू होता है
अच्छा ही है , समय इतना
कहाँ ही होता है ।

हँसना ही छुट गया है
लेकिन ज़िंदगी के हर मोड़ पर
फंसना भी छुट गया है ।

मुस्कुराहट भी रूठ गयी है
उसकी हर आहट भी पीछे छुट गयी है ।

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